दूसरों की खुशी से दुख क्यों? सोचने वाली बात

Dusaro ki khusi se dukh kyu hota hai? एक बौध कथा मैंने पढ़ी थी कि एक शहर में एक सेठ रहते थे। बड़े उदार तथा दानी प्रवृत्ति के थे। एक दिन अपने घर में बैठे थे कि एक आवाज़ आई ‘ मैं बहुत भूखा हूं। भूख से मेरी जान निकाल रही है। कोई खाना खिलादे ‘ सेठ ने सुना, उस व्यक्ति को बुलवाया, अच्छा खाना खिलाया। खाना खाकर वह तृप्त हो गया। सेठ को दुआएँ देने लगा। सेठ ने उससे पूछा कि आप कौन है और कहां से आए हैं। उस व्यक्ति ने कहा कि मैं यमराज का दूत हूं और आपको ही लेने आया हूं, यह सुनकर सेठ घबरा गया। उसके सामने गिडगिडाने लगे।

उस दूत ने कहा सेठ जी आपने बहुत स्वादिष्ट खाना खिलाया है, मैं आपसे बहुत खुश हूं। मेरे पास सबका अह्मालनामा है किसने क्या किया है सबका लेखा जोखा है आपका भी इसमें है, मैं आपको पांच मिनट का समय देता हूं आप अपने अह्मालनामों को ठीक कर लें। उसमें जो चाहें लिख लें। सेठ अह्मालनामा खोला तो उसमे उसके पड़ोसी का पृष्ठ खुल गया। उसमें पड़ोसी की बड़ी तारीफ लिखी थी।

उसने उसके सरे अच्छे कर्म काट कर उसके अवगुण उसकी बुराई लिखना प्रारम्भ कर दिया। समय हो गया तो दूत ने कहा सेठ जी पांच मिनट का समय हो गया अब सेठ को होश आया कि अरे मैं तो अपना अह्मालनामा देख भी नहीं पाया। पड़ोसी की बुराई देखता रह गया, वास्तव में ऐसा ही है हम अपने दुख से कम दुखी हैं दूसरे के सुख देखकर ज्यादा दुखी होते हैं।

यह तो एक बोध कथा वास्तव में तो अह्मालनामा हमारे जन्म के साथ ही हमें दे दिया जाता है। इस अह्मालनामा में हम कुछ भी लिखने के लिए पूर्व स्वतंत्र हैं। जैसे एक student को एक कॉपी और exam paper दे दिया जाता है। तथा तीन घंटे का समय मिला है।

वह पूर्ण स्वतंत्र है अपनी कॉपी में कुछ भी लिख ले। लेकिन जब examiner हमारी कॉपी जांचता है तथा fail कर देता है तब पश्चाताप होता है, दुख होता है। हमें जीवन रूपी कॉपी मिली, आयु रूपी समय मिला। लेकिन लिखा क्या ? एक छोटे बच्चे को कागज़ तथा कलम दे दो तो वह उस कागज़ पर आड़ी तिरछी लकीरें खींचता रहेगा। सारा कागज़ इसी में बर्बाद कर देगा।

ऐसे ही हमने भी अपनी जीवन रूपी कॉपी में आड़ी तिरछी लकीरें खींचकर समय बर्बाद ही किया है। कारण हमारी दूर की दृष्टि बहुत तेज है पास की खराब है। हमें दूसरों के दोष दूर से दिखाई देते हैं क्योंकि दूर की दृष्टि ठीक है। अपने पास के दोष दिखाई नहीं देते कारण पास की दृष्टि खराब हो गई है।

महात्मा ईसा ने अपने प्रमुख प्रवचन पहाड़ी के प्रवचन में कहा था कि तुम्हें दूसरे को आँख में पड़ा छोटा सा तिनका दिखाई दे रहा है अपनी आँख में पड़ा शहतीर (log) नहीं दिलाई नहीं देता अर्थात दूसरे की बुराई खूब दिखाई देती है, दूसरे की अच्छाई भी बुराई दिखाई देती है। अपनी बुराई भी अच्छाई मालूम पड़ती है। मेरी आँखों में ‘ मैं ‘ का रोग हो गया है। मैं ही केवल योग्य हूं, केवल मैंने ही यह कार्य किया। यह ‘ मैं ‘ अपने को ही सर्वश्रेष्ठ समझता है। यह ‘ मैं ‘ और बढ़ता जाता है। एक संत कहा करते थे भाई इससे अच्छा मैंने कोई दाग अपने लगा लिया होता। इस दाग को देखकर मेरा ‘ मैं ‘ तो कम हो जाता। एक शायर ने बहुत अच्छा लिखा है –

ख़ुदा पूछेगा नेक बन्दे से,
तूने गुनाह क्यों न किये,
क्या खुदा करीम न था।

संत का चरित्र कपास के फल के सामान नीरस अर्थात विषयों से विरत लेकिन जैसे कपास धुन जाता है काटा जाता है कपड़ा बुना जाता है। इतने कष्ट सहने पर भी वह वस्त्र बन कर सबके शरीरों के अब ढकता रहता है। वह सबके लिये अपरिहार्य है, अत: सबके लिये वन्दनीय है। वह साधू है संत है सबका वन्दनीय है।

आवश्यक यह है कि हमें यह अवस्था कैसे प्राप्त हो? गुरु महाराज ने कहा केवल साधन और स्वाध्याय ही वह माध्यम है जिनके द्वारा हमारी दोष देखने की प्रवृत्ति कम होगी। साधना से आप में गंभीरता आएगी, धैर्य आएगा ओ स्वाध्याय से हमारी दृष्टि विमल होती जाएगी। स्वाध्याय में अच्छे ग्रंथों का अनुशीलन तथा खुद का अध्ययन अर्थात अपने को देखना। हम अपने शरीर को खुद देख लेते हैं लेकिन अपने चेहरे को नहीं देख पाते।

शरीर को हम खुद देखें तथा चेहरे को ओरों को देखने दें जिन्हें हम निंदक कहते हैं वे हमारा चेहरा देख कर उस पर लगे दाग बतला रहे हैं अत: उन्हें अवश्य ध्यान से सुने। वे  हमारे हितेषी हैं। साधना के द्वारा हम अंतर्मुखी होते जाएंगे वहां गुरु का प्रकाश या आत्मा का प्रकाश मिलेगा जहाँ मेरी दृष्टि अंतर्मुखी हो जाएगी।

सारे विकार दिखलाई देंगे। गुरु कृपा से सभी से मुक्ति मिल जाएगी। जीवन पवित्र और निर्मल हो जाएगा। जब तक मुझमे दोष हैं में अवश्य ही दूसरों के दोष देखूंगा। जहाँ मुझमे दोष नहीं रहेंगे, मैं भी किसी के दोष नहीं देखूंगा जीवन सुखमय हो जायेगा।

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