सब सृष्टि ईश्वर की है। इसमें शरीर से कोई छोटा-बड़ा हो, आयु में छोटा-बड़ा हो, लेकिन आत्मा किसी की छोटी-बड़ी नहीं है, सब बराबर है। इसलिए मेरे लिए सभी बड़े हैं सबका सत्कार और आदर करना चाहिए।

बहुत से लोग छुआ-छुट को इतना बढ़ावा देते हैं कि दूसरों के मन को दुख हो जाता है, लेकिन वह उनका धन तो ले लेते हैं, उनसे अपना भोजन-वस्त्र खरीदते हैं, तब क्या वह उनके छूने से अलग है। तुम अगर किसी जानवर के साथ दुर्व्यवहार करते हो, उसे कष्ट देते हो तो वह बोलेगा तो नहीं, लेकिन क्या वह तुम्हें देख नहीं रहा? वह तुम्हारे व्यवहार को खूब जनता है।
सूरत का बहुत अच्छा हो, वह अच्छा जरुर है, पढ़ा-लिखा हो, वह भी अच्छा है, लेकिन सबसे अच्छा पुरुष सदाचार वाला है।
सोचों क्या हमारे पास कुछ है? अगर रुपया भी है तो क्या वह किसी का दिया हुआ नहीं है? और जिसने आज दिया है, क्या वह कल नहीं देगा?
तुम जानते हो पक्षी पेट भरने पर दाना छोड़कर उड़ जाता है, पशु भी पेट भरने पर चारा छोड़कर चले जाते हैं, लेकिन मनुष्य ही एक ऐसा लालची जिव है कि पेट भर जाने पर भी भोजन को छोड़ना नहीं चाहता, उसे बांधना चाहता है।
सोचो हम यहाँ आए थे तो क्या पैसा भी लेकर आए थे? इसलिए जो भी मिला है, उसका सही-सही वितरण कर। लेखा-जोखा बराबर हो। तेरे पास अलग एक भी पैसा न हो जिसे तू अपनी सम्पत्ति समझे। यही समता है, और यही मुक्ति है।
तेरा हिसाब अगर गलत है तो बंधन, सही है तो मुक्ति। तू जैसा आया था, वैसा ही रहा, लाखों रुपये इधर-उधर करता रह, तुझे किसी बात का भय नहीं होगा।
गृहस्थी यह नहीं कि तुम परिवार में रहो, विवाह करो, संतान हो, रोजगार धंधा करके जीवन निर्वाह करो। गृहस्थी वह है जो प्रकृति के तत्वों में उलझा हुआ है, मोह और अज्ञान में रहकर अपने को बद्ध कह रहा है।
और विरक्त भी वह नहीं जो बच्चों को त्याग जंगल में एकान्तवास कर रहा है, गेरुआ वस्त्र पहनकर अपने को विरक्त कह रहा है, जीवन-निर्वाह के लिये दूसरों पर भर बना हुआ है।
सच्चा गृहस्थ वह है जो उस परमात्मा को भूलकर मोह और अहंकार के तत्वों में फंसा हुआ है, प्रकृति के तत्वों को ओढ़े हुए है, और सच्चा विरक्त वह है जिसने प्रकृति के तत्वों को हटाकर अपने सच्चे स्वरुप को जान लिया है।
हमारा जन्म तो गृहस्थी से ही हुआ है, तो पाप कैसा? अगर कोई गृहस्त अपने विचारों को शुद्ध कर ले तो विरक्त से हजार गुना अच्छा है।
सोचो क्या भगवान राम गृहस्थी नहीं थे? क्या भगवान कृष्ण के रानियाँ नहीं थी? उनके संतान नहीं थे? वशिष्ठ, वाल्मीकि, बुद्ध, जनक, महावीर, कबीर, नानक, आदि ब्रह्म ज्ञानी नहीं थे?
अपने मन का सन्यास बंधन में डाल सकता है, परन्तु गुरु की दी हुई गृहस्थी भी उसके मुक्ति का कारण हो जाती है।
जिव का सच्चा आश्रय भगवान है, इसलिये भगवान ने कहा है कि तुम मेरे आश्रय रहो, दुखो से बचे रहोगे।।
जीवन क्या है?
मार्ग अनदेखा है, इसलिए किसी के पीछे-पीछे चलो, और अपना हाथ उसके हाथ में दे दो, आसानी से पार हो जाओगे। तुम यह मत सोचो कि मेरा ह्रदय अपवित्र है, वह कैसे वहां विराजेंगे? मेरे ह्रदय में गंदगी का ढेर है, कैसे वह वहां बैठेंगे? मेरे ह्रदय वासनाओं से भरा हुआ है, उनको कहाँ बिठाऊंगा? वह यह सब कुछ नहीं देखते। दीपक यह कभी नहीं देखता कि वहां अँधेरा है, कैसे जाऊंगा? वह तो जहाँ जाता है प्रकाश हो जाता है।
पुत्र को प्रथम माँ अपना स्तनपान करायेगी, तभी तो पुत्र उसे माँ कहकर प्रेम करेगा, केवल पैदा कर देने से ही नहीं।
तुम घबराओ नहीं, उसकी पहिचान बड़ी सरल है, बड़ी विचित्र है। हजार स्त्रियाँ बैठी हों, परन्तु पुत्र जब माँ कहेगा, तो सब माताएं उसकी ओर देखें, परन्तु अपनी माँ की दृष्टि और ही होगी और तुम भागकर उसकी गोद में बैठ जाओगे।
मगर हमारे जीवन का हाल ऐसा है कि कितनी आयु मिली, सब अज्ञान में ही व्यतीत कर दी, कोई-कोई तो खाते-पीते में ही ऐसे गये, जैसे अन्न में लगा हुआ घुन अन्न के साथ ही पिस जाता है। कितने तो विषय भोगों को भोगते हुए ही समाप्त हो गये। कोई-कोई धन-संग्रह में ऐसे लगे कि मरते दम तक धन ही इकट्ठा करते रहे। कोई वैभव और प्रतिष्ठा की साध पूरी करते रहे। जाना ही नहीं कि जीवन क्या है?
समता एक बढ़िया साधन है। समता में आने के लिये तुम्हे बिच में रहना है।।।। न कम खाना, न अधिक खाना, न रातों-रात जागना, न बराबर सोते रहना, न ईश्वर का ऐसा भक्त बन जाय कि दुनिया को छोड़कर भागे, न ऐसा संसारी बने कि घर में ही पड़ा रहे।
संसार में रहना है, इसलिए इस संसार का ज्ञान जरुरी है, लेकिन सदा यही रहना नहीं, इसलिए उस आत्मा का भी ज्ञान आवश्यक है। जब तुम पूर्ण समता में आ जाओगे तो बस ऐसे तैरने लगोगे जैसे पानी पर पड़ा एक हल्का सा फूल।
सिवा आत्मा के और दूसरा तत्व यहाँ पर है ही नहीं। जैसे बर्फ के अन्दर पानी ही पानी है, ऐसे ही विश्व के अन्दर आत्मा ही आत्मा है, मगर उसे देखा उसी ने, जिसने देखना चाहा।
जैसे आकाश सबके ऊपर छ्या है, ईश्वर का हाथ भी सबके ऊपर है।
आकाश में उड़ने वाले पक्षी मीलों ऊपर उड़ जाते हैं, उड़ते रहते हैं, परन्तु थककर एक आश्रय ढूंढते हैं। कोई वृक्ष की शाखा ढूंढता है, पाते हैं तो प्रसन्न होकर बैठ जाते हैं और शांति पाते हैं। कन्याएं वर पाकर शान्त होती है। वह कितनी ही विद्वान हों, चतुर हो परन्तु पति के बिना शान्ति नहीं। परन्तु एक मनुष्य ऐसा है जो बिना आश्रय के ही शान्ति चाहता है, और बिना गुरु के ही ज्ञान चाहता है।
जैसे पुत्र अपने पिता के जन्म का हाल क्या जाने? ऐसे ही जीवात्मा प्रभु को कैसे जाने?
कोई एक बड़ी नदी होती है, अथाह पानी बह रहा है उसे हर जगह पार नहीं कर सकता। उसके किनारे कुछ घाट होते हैं, वहां एक मल्लाह होगा, एक नाव होगी। ऐसे ही भवसागर की नदी का भी एक घाट है, जहाँ मल्लाह गुरु है, और नाव है। उसका ज्ञान। बस, वह भी उस ज्ञान की नाव पर बैठकर जीव को पार कर देते हैं।
ये भी पढ़े –
- सबके साथ अच्छा व्यवहार करना ही हमारा पहला धर्म है
- ईश्वर एक नाम अनेक – सबका मालिक एक
- अहंकार क्या है? क्यूँ है?
- दुनिया में मेहमान बनकर रहो – भवसागर पर करने की कला