दहेज प्रथा एक अभिशाप- Hind essay

दहेज प्रथा एक अभिशाप- हिंदी निबंध: तीन शब्द से बने ‘ दहेज़ ‘ का अर्थ है – विवाह के अवसर पर कन्या पक्ष की ओर से वर पक्ष को दिया जाने वाला धन और सामान। भारत में दहेज़ प्रथा का आरम्भ कब हुआ और कैसे हुआ यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता पर या निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत में इस प्रथा का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है।

रामायण में भी राजा जनक द्वारा सीता के विवाह के अवसर पर दहेज़ देने का वर्णन मिला है। प्राचीन काल में कन्या के विवाह के अवसर पर दहेज़ देना कन्या पक्ष पर की इच्छा पर निर्भर करता था। वर पक्ष द्वारा दहेज़ माँगे जाने का कदाचित ही कहीं वर्णन हो। लेकिन आधुनिक युग में आकर दहेज़ ने एक नया रूप अपना लिया है। जिसके कारण यह समाज के लिए अभिशाप और कलंक बन गया है।

समाज में किसी भी प्रथा का प्रारंभ किसी अच्छे उद्देश्य या मानव कल्याण के लिए ही किया जाता है। समय के साथ-साथ यह प्रथा एक बुराई का बुरा रूप ले लेता है कि उससे छुटकारा पाना सहज नहीं रह पाता। समाज के लोगों की स्वार्थी मनोवृति के कारण उसमें अनेक बुराइयाँ आ जाती हैं। दहेज़ प्रथा ऐसी ही सामाजिक कुप्रथा का रूप धारण कर चुकी है जिसने आधुनिक सभ्य कहलाने वाले समाज के मुख पर कालिख पोत दी है।

आज दहेज़ प्रथा के कारण ही विवाह जैसे महत्वपूर्ण पवित्र संस्कार ने भी व्यवसाय का रूप ले लिया है। वर की खुलेआम बोली लगाई जाती है। जो धनवान है वह ऊँची बोली देकर वर को खरीद सकता है। इस प्रथा ने भारतीय समाज के अंदर से खोखला कर दिया है। पारिवारिक जीवन को विशेला बना दिया है। हजारों स्त्रियों को बेघर कर दिया है।

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उनके भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। हजारों नारियों को इसके बलिवेदी पर अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी है। प्रतिदिन समाचार-पत्रों में दहेज़ के कारण किसी न किसी नवयुवती को जलाने या आत्महत्या के लिए विवश करने के समाचार प्रकाशित होते हैं।

दहेज़ का वर्तमान स्वरूप इतना भयावह हो गया है कि मध्यम वर्ग परिवार कन्या के उत्पन्न होने पर गमगीन हो जाते हैं। उन्हें कन्या के विवाह की चिंता उसी समय से सताने लगती है। दहेज़ देने में असमर्थ माता-पिता को अपनी कन्या का विवाह अधेड़, अयोग्य व्यक्ति से करने पर विवश होना पड़ता है।

इतना ही नहीं दहेज़ देने में असमर्थ माता-पिता समाज में अपने मान प्रतिष्ठा को बचाने के लिए तथा अपनी लड़की को सास-ननद एवं देवरानी-जिठानी के तानों से बचने के लिए अपना सर्वस्व झोंक देते हैं। वह अपनी समर्थ से बाहर दहेज़ जुटाता है। उसके लिए कर्जा भी लेता है। अपनी संपत्ति को गिरवी रखता है और सारा जीवन कर्ज की चक्की में पिसता रहता है।

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आज तो दहेज़ के सम्मुख समाज का प्रतेक वर्ग नतमस्तक है। विवाह में कम दहेज़ लाने वाली नववधू के सभी गुण उसके अवगुण में बदल जाते हैं। पति, सास, ननद आदि के व्यंग भरे ताने आरम्भ हो जाते हैं। दहेज़ के लोभी विवाह के अवसर पर मिले दहेज़ से संतुष्ट नहीं होते। विवाह के बाद भी उनकी मांग निरंतर बनी रहती है। वे अपनी मांग पूर्ति का साधन नववधू को बनाते हैं। उस पर पिता के घर से दहेज़ लेने के लिए दवाब डालते हैं। यदि इस पर भी उनकी मांग की पूर्ति नहीं होती है तो वे नववधू को तरह-तरह से शारीरिक व मानसिक यातनाएं देते हैं।

उसके साथ मार-पिट की जाती है और कई-कई दिन तक खाना नहीं दिया जाता है। नौकरानियों की तरह उससे अत्यधिक काम लिया जाता है। यहाँ तक की उसे कुरूप बनाने का प्रयास भी किया जाता है। इतने पर भी उनकी दहेज़ की भूख शांत नहीं होती तो वह लड़की को घर से निकाल देते हैं। यहाँ तक कि कुछ दहेज़ लोभी तो लड़की पर मिटटी का तेल छिड़ककर जिंदा जला देते हैं। या फिर ऐसी परिस्थितियों का निर्माण कर देते है कि वह खुद ही आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाती है।

अब तो ससुराल में पहुँचने के तुरंत पश्चात् ही नववधू के रूप-सौन्दर्य और अन्य गुणों की अपेक्षा उसके साथ आए दहेज़ की ही चर्चा होती है। दहेज़ की चकाचौंध में उसके समस्त अवगुण छिप जाते हैं और यदि दहेज़ कम हो तो चारों ओर कानाफूसी आरम्भ हो जाती है। यह बात कोई न कोई स्त्री नववधू के कानों तक भी पहुंचा देती है। इससे लड़की को पहले दिन ही ससुराल में अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगता है।

दहेज़ की यह कुप्रथा तब तक समाप्त नहीं हो सकती जब तक देश का युवा वर्ग व महिला संगठन और समाज सेवी संस्थाएं सरकार से सहयोग न करे। इसके लिए युवक-युवतियों को अपने विवाह में दहेज़ न लेने और न देने की शपथ लेनी चाहिए और उस पर दृढ़ता से अमल करना चाहिए। स्त्री-शिक्षा के साथ-साथ स्त्रियों को रोजगार के पर्याप्त अवसर प्रदान करने आवश्यक हैं। प्रचार के दृश्य और श्रव्य साधनों का समुचित प्रयोग कर जनता को दहेज़ के विरुद्ध जाग्रक करना अत्यन्त आवश्यक है।

सामाजिक संगठनो को दहेज़ लोभियों के विरुद्ध आंदोलन चलाना चाहिए। देश के न्यायालयों ने दहेज़ के लालच में नववधुओं को जलाने वाले सास-ससुर और पतियों को मृत्युदंड और आजीवन कारावास देकर निश्चय ही एक सराहनीय कार्य किया है। अब समय आ गया है कि देश के युवाओं को दहेज़ की सड़ी-गली परम्परा को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प करना चाहिए। दहेज़ लेने और देने वालों के घरों के सामने सत्याग्रह करना चाहिए। दहेज़ देकर या दहेज़ लेकर होने वाले विवाह को सम्पन्न न होने दें।