कटोरे का जल – तेनालीराम की कहानी

ek katori ka pani, tenaliram ki kahani.. एक बार सम्राट कृष्णदेव राय अमरकंटक की यात्रा पर गये। साथ में प्रमुख दरबारी और अंगरक्षक भी थे। नर्मदा नदी के किनारे उन्हें एक सिद्ध संत के दर्शन हुए। संत पृथ्वी से एक फुट ऊँचे शून्य में स्थित थे। आंखे बंद थी। मुंह में निरंतर के स्वर निकल रहे थे। नीचे धरती पर मृगछाल बिछी थी।

यह देखकर सम्राट विस्मित हो उठे। दरबारियों सहित हाथ जोड़कर वहीं बैठ गये। कुछ देर बाद संत ने आँखें खोली। धीरे-धीरे पृथ्वी की ओर आए। फिर धरती पर बिछी मृगछाल पर टिक गये। हाथ जोड़े सामने बैठे कृष्णदेव राय को देखकर बोले – कहो कृष्णदेव आनंद में हो न?

जी महाराज। सम्राट कृष्णदेव राय ने विनीत स्वर में उत्तर दिया – किन्तु।

वह मैं जनता हूँ। संत ने कहा – आजकल विजयनगर साम्राज्य पर आर्थिक संकट के बादल छाये हैं। शत्रुओं के निरंतर आक्रमणों ने राज्य के खजाने को खाली कर दिया है। यही है न?

कटोरे का जल – तेनालीराम की कहानी

सम्राट नतमस्तक हो गये। संत ने सम्राट को एक कटोरा देकर उसमें नर्मदा का जल लाने को कहा। सम्राट कटोरे में नर्मदा का जल भर लाए, तो संत ने अपनी तर्जनी अंगुली जल में डुबोई। कुछ मंत्र पढ़कर सम्राट से बोले – कटोरे के इस मंत्र बद्ध जल के छींटे सात दिन तक अपने कोषागार में दो। खाली कोषागार भी भर जायेगा। कभी खाली नहीं रहेगा। लेकिन सावधान, जल कटोरे में से छलकना नहीं चाहिए।

सम्राट प्रसन्नता से भर उठे। जल भरे कटोरे को ले सावधानी से अपनी छावनी में लौटे। विजयनगर की ओर कुच करने का आदेश दिया। डेरे तंबू उखाड़ दिये गये। सारा सामान बांध दिया गया। रथों में घोड़े जोत दिये गये, किन्तु सम्राट परेशान थे।

समस्या बड़े गंभीर थी। जल भरे उस कटोरे को मार्ग की सारी अड़चनों के बावजूद सुरक्षित विजयनगर पहुँचाना सभी को असंभव लग रहा था।

सम्राट कृष्णदेव राय ने एक-एक कर सभी दरबारियों से उस दायित्व का निर्वाह करने के लिए कहा। कोई उसे निबाहने के लिए तैयार नही हुआ।

अंत में तेनालीराम ही बचा। सम्राट उसे देख, निराश स्वरों में बोले – असत्य तेनालीराम तो यहाँ आते समय ही सारा समय सोता रहा था। इससे पूछना तो व्यर्थ ही है।

नहीं महाराज। एकाएक तेनालीराम बोले – सोता तो मैं इसलिए रहा था कि कोई काम न था। पवित्र जल से भरा कटोरा साथ होगा, शायद आँख न लगे।

सम्राट बोले – सोच लो। अगर इस कटोरे से जल कम हुआ या बिखरा तो तुम्हारे शरीर से गर्दन अलग हो जाएंगे।

तेनालीराम जल से भरा कटोरा लेते हुए बोले – अन्नदाता! आप प्रस्थान करने का आदेश दीजिए।

सम्राट ने सभी को अपने-अपने रथ पर सवार हो प्रस्थान करने के आदेश दिया। पूरा कारवां विजयनगर की ओर चल पड़ा।

रास्ते भर सभी जल कटोरे के बारे में सोचते रहे। सम्राट विशेष परेशान रहे। जब-जब उन्होंने अंगरक्षक को भेज कटोरे के बारे में जानना चाहा, तब-तब उन्हें सुचना मिली की तेनालीराम रथ में सोया पड़ा है। कटोरे का कहीं पता नहीं।

मंत्री, सेनापति, पुरोहित आदि को यह समाचार मिलता, तो वे मन ही मन खुशी से उछल पड़ते।

आगे-आगे सेनापति का रथ था। वह सबको ऐसे रास्तों से होकर ले जा रहा था, जो काफी उबड़-खाबड़ थे। तेनालीराम का रथ जोर-जोर से हिचकोले खा रहा था।

विजयनगर आते-आते सभी को विश्वास हो गया था कि कटोरे का पवित्र जल तो भूले, इतनी कठिन यात्रा में कटोरा ही पिचककर लट्टू बन गया होगा।

रथ, महल के आगे रुके तो सम्राट कृष्णदेव राय ने सैनिकों को कहा – तेनालीराम को जाकर कहो, पवित्र जल से भरा वह कटोरा मुझे दे दो।

जैसे-जैसे सैनिक, तेनालीराम के रथ की ओर बढ़ रहे थे, दरबारियों को तेनालीराम की मौत समीप आती दिखाई दे रही थी।

तेनालीराम उस समय भी सोया पड़ा था। सैनिकों ने उसे जगाया, तो वह आंखे मलता हुआ उठा। सैनिकों की बात सुनी। फिर रथ की छत से बंधे अपना झोला उतार सम्राट के पास चल दिया।

तेनालीराम को कटोरे की जगह झोला लटकाये आता देख सम्राट बोले – मैंने तुम्हें झोला नहीं, पवित्र जल से भरा कटोरा लाने को कहा था।

वही लाया हूँ अन्नदाता। कहते-कहते तेनालीराम ने झोले में हाथ डाला और जल से भरा कटोरा निकालकर सम्राट को दे दिया।

चारों ओर हैरत भरा माहौल बन गया। सम्राट कभी तेनालीराम के झोले की ओर देखते, कभी कटोरे में लबालब भरे जल की ओर।

जब न रहा गया, तो बोले – अगर तुम हमें बता दो कि इस झोले में रखकर तुम जल से भरे कटोरे को सुरक्षित कैसे लाए? तो जो मांगोगे, वही मिलेगा।

तेनालीराम मुस्कुराया। झोले में हाथ डाला। फिर एक गुब्बारा निकालकर रजा के सामने रखकर दिया। बोला – मैंने जल से भरा तह कटोरा इस गुब्बारे में रख दिया था। गुब्बारे की रबर कटोरे के चरों और कासी होने के कारण पवित्र जल से भरा कटोरा यहाँ तक सुरक्षित आ सका।

सम्राट का सर गर्व से उठ गया। बोले – तेनालीराम, विजयनगर को सदा तुम पर गर्व रहेगा। मांगो, क्या माँगते हो?

आपकी कृपा। तेनालीराम बोला।

सम्राट ने उसे गले से लगा लिया। रास्ते भर तेनालीराम का अहित सोचते आने वालों के सिर लज्जा से झुक गये।

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