बुढ़ापा एक अभिशाप

खेलता-कूदता, मनचला बचपन सबको प्यारा लगता है। मस्त जवानी की शान ही निराली होती है। परन्तु कमबख्त बुढ़ापा किसी को अच्छा नहीं लगता।

बुढ़ापा शरीर की दुर्दशा कर देता है। सर के काले बालों पर सफेदी आ जाती है। जवानी में मीलों तक मजे से चलने वाले पैर बुढ़ापे में थोड़ी दूर चलने पर ही थक जाते हैं। किसी-किसी के तो हाथ-पैर कांपते हैं। आँखों से भी धुंधला दिखाई देने लगता है। बुढ़ापा कानों की सुनने की शक्ति भी छीन लेता है। दांत भी जवाब देने लगते हैं। शरीर की त्वचा में सिकुराने पड़ जाती हैं। बुढ़ापे का पतझड़ हमेशा के लिए जीवन की सारी बहार छीन लेता है।

बुढ़ापा आदमी के दिमाग पर भी अपना असर डालता है। दिमागी ताकत कमजोर हो जाती है। स्मरण शक्ति आदमी का साथ नहीं देती। जाने-माने व्यक्तियों के नाम और पते याद नहीं आते। कंठस्थ की हुई कविताएं और सुभाषित, पता नहीं किस भुलभुलैया में गुम हो जाते हैं।

बुढ़ापा एक अभिशाप
बुढ़ापा एक अभिशाप

बुढ़ापा आदमी को परवश बना देता है। बूढ़े व्यक्तियों की जिंदगी बेटे-बेटियों और पोते-पोतियों के सहारे ही चलती है। ” पराधीन सपनेहूँ सुख नहीं ” के अनुसार बूढ़े व्यक्ति को अपनी हर चीज के लिए दूसरों का मुंह ताकना पड़ता है। उसे परिवारवालों की मर्जी के अनुसार ही चलना पड़ता है। बैंक में उसकी जमा-पूंजी हो, तब तो ठीक, नहीं तो बात-बात में उसे अपमान के कड़वे घूंट पिने पड़ते हैं। प्राय बूढ़े व्यक्ति परिवार के लिए बोझ सा बन जाता है। उसकी बीमारी की बुढ़ापे का असर मानकर उपेक्षा की जाती है।

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नई पीढ़ी को बूढों की बातें विशबुझे तीरों जैसी लगती है। नाती-पोतों को दादा-दादी और नाना-नानी के विचार दकियानूसी लगते हैं। वे उन्हें टाल देना उचित समझते हैं। अपनी उपेक्षा बूढों को बहुत कास्ट देती है, परन्तु घुट-घुटकर जीना ही प्राय बूढों की नियति बन जाती है। ऐसे में भगवान के नाम का स्मरण ही उन्हें कुछ सहारा देता है।

अब तो वृद्धाश्रमों का जमाना आ गया है। बूढ़े माँ-बाप को वृद्धाश्रमों में भेजकर बेटे अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। छोटे-छोटे नाती-पोतों के सान्निध्य का सुख भी बूढों से छीन लिया जाता है।

हम बड़े-बूढों के अनुभवों से लाभ उठाएं, उनके ज्ञानकोष को व्यर्थ न जाने दें। उन्हें उचित आदर-मान दें। ऐसा होने पर बूढों के लिए बुढ़ापा अभिशाप नहीं, वरदान बन जाएगा।

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