अहंकार क्या है? क्यूँ है? English में अहंकार को EGO है। सामान्य लोग उसे बहुत मूल्यवान समझकर उसी में खोए रहते हैं और अपने उसी अहंकार की रक्षा के लिये हर समय मर मिटने को तैयार रहते हैं। उसे अपना स्वाभिमान कहते हैं और अपने उस स्वाभिमान की रक्षा करना सबसे बड़ा काम समझते हैं।
छोटी-छोटी महत्वहीन बातों के लिए भी साधारण से साधारण व्यक्ति ही नहीं बड़े-बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति भी अपने तुच्छ अहंकार की संतुष्टि के लिए कभी-कभी क्षणिक आवेश में अहंकार ऐसे-ऐसे घृणित पाप कर्म कर बैठते हैं कि जिसका घातक परिणाम जीवन भर के लिए पश्चाताप का धुआँ छोड़ जाता है और जीवन अंधकारमय हो जाता है।
ऐसे तुच्छ अहंकार के साथ उसके अन्य सहयोग गर्व, दर्प, अभिमान, अकड़, हेकड़ी, गुस्सा, क्रूरता, अज्ञान आदि भी जुड़े होते हैं। जो वास्तविक स्वाभिमान है, जो वैस्ताविक व श्रेष्ठ अहंकार है, उसे सामान्य लोग जानते ही नहीं। बहुत कम लोग होते हैं जो अहंकार के सम्बन्ध में सही धारणा रखते हैं। इसलिए इस अहंकार पर चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है।
अहंकार के मुख्य रूप से तीन स्वरूप हुआ करते हैं –
1. शरीर अहंकार जिसे तमोगुणी व निक्रष्ट अहंकार कहा जाता है –
जो व्यक्ति रात दिन अपने शरीर को ही सब कुछ समझता है, अपने रूप का, अपने-अपने परिवार व अपने सहयोगियों के सामूहिक बल व पौरुष का अहंकार करता है, नाना प्रकार के अनैतिक कार्यों व बुरी आदतों तथा पापकर्मों से अपने शरीर को भांति-भांति से भोजन व पैय पदार्थ खिलाने-पिलाने, विषय भोग उपलब्ध कराने, कीमती व खूबसूरत वस्त्राभूषण व खुशबुओं से सुसज्जित करने अथवा अनेकों सुविधाओं व विषय भोगों से शरीर को सुखी रखने आदि शारीरिक बातों में उलझे रहते हैं ऐसे व्यक्तियों के अहंकार को तमोगुणी या निक्रष्ट अहंकार कहा जाता है।
तमोगुणी अहंकार वाले लोग एक-एक, दो-दो रूपए के लिए अथवा तुच्छ व महत्वहीन बातों के लिये प्राय: लड़ाई-झगड़े व मारकाट पर उतार आते हैं। आपराधिक वृत्ति के जो भी लोग देखने को मिलते हैं वे सब शारीरिक अथवा तमोगुणी अहंकार के ही शिकार हुआ करते हैं। इसे ही आसुरी सम्पदा का नाम दिया गया है। ऐसे लोगों का जीवन आलस्य, निद्रा, भय, आशंका, प्रमाद, मनमाने दुराचारनो व अपराधों में ही बिता करता है।
2. मानसिक व बौद्धिक अहंकार जिसे रजोगुणी या माध्यम श्रेणी का अहंकार कहा जाता है –
जो व्यक्ति अपने शरीर, अपने परिवार व नाते-रिश्तेदारी के साथ-साथ अपनी धन-सम्पदा, नाना प्रकार की सुख-सुविधाओं के संग्रह व समाज में अपनी उच्च शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, राजनीती आदि व्यावसायिक स्तर से प्राप्त पद प्रतिष्ठा व मान-सम्मान का अभिमान करते हैं, इन सबकी प्राप्ति के लिए ही दिनरात बैचैनी से जूटे रहते हैं, उनके ऐसे अहंकार को रजोगुणी व मध्यम श्रेणी का अहंकार कहा जाता है।
मानव समाज में अधिकतर लोग इसी रजोगुणी अहंकार को स्वाभिमान कहकर उसे ही खूब पालने-पौशते व उसे सुरक्षित रखने के लिये अपने-अपने व्यावसायिक कार्यक्षेत्र में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा व प्रतिशोध करते हुए प्राणों की भी बाजी लगा देते हैं। छोटी-छोटी बातों से राजसी अहंकार के लोगों के इस मिथ्या अहंकार पर लगने वाली चोट के कारण वे प्राय: क्रोधित होकर तिलमिलाने व लड़ने-झगड़ते है जो यथाशीघ्र त्याज्य है। लेकिन कोई भी व्यक्ति इस मिथ्या अहंकार को इस कथाकथित स्वाभिमान को, अपने जीवन की बहुत बड़ी मूल्यवान सम्पत्ति समझते हुए त्यागना तो दूर इससे पल भर भी अलग होने नहीं चाहता।
राजसी अहंकार के अधीन पड़े लोगों को अपने ” मैं ” की, अपने नाम, अपने मान, सम्मान की बड़ी चिंता रहती है। राजसी अहंकार के लोग अपने नाम को व अपनी मान प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए नाना प्रकार के परोपकार के सामाजिक व धार्मिक आयोजन भी करते कराते हैं एवं एक से बढ़कर एक उच्च प्रतिष्ठा व अधिकारों से सम्पन्न पदों व धंधों की प्राप्ति के लिये हर सम्भव प्रयास करते देखे जाते हैं ताकि सपने समाज में तथा देश व दुनिया में उनका खूब नाम फैले और हर समय अधिक से अधिक सुख-सुविधा व प्रतिष्ठा का वह आनन्द उठा सके। बड़े-बड़े त्यागी, तपस्वी, सिद्ध, महात्मा के नाम से पूजे जाने वाले फकीर भी इस मिथ्या अभिमान के बंधन में पड़े हुए देखे जा सकते हैं अन्य सांसारिक विषय भोगों में लिप्त लोगों की तो बात ही क्या करनी है।
3. आत्मिक अहंकार जिसे सतोगुणी या उत्कृष्ट अहंकार कहा जाता है –
सात्विक अहंकार वाला व्यक्ति पूर्ण निराभिमानी होकर अपने को ईश्वर का अंश सत चित्त आनंद स्वरूप, अजर व अमर समझता है, वह अपने विनाशशील शरीर व संसार की क्षणभंगुरता को समझता हुआ, सभी प्राणियों व पदार्थों में एक उसी ईश्वरीय सत्ता का वास अनुभव करता है। सबके प्रति प्रेम भावना से व्यवहार करता है, खुद को सबसे छोटा समझकर हमेशा विनम्र व विनयशील होता है, यह सारा सृष्टि का पसारा उसी ईश्वरीय सत्ता का ही एक प्रसारण है, ईश्वर ने बड़ी कृपाकर मुझे भी अपनी इस अदभुत लीला का एक पात्र बनाया है, ऐसा समझता हुआ परमात्मा की अनंत प्रकार की लीलाओं को देख, सुन व समझ कर हमेशा आनंद में मग्न रहता व उसी परमेश्वर के गुणगान में रमा रहता है।
उसे अपने नाम, पद, प्रतिष्ठा, यश सम्मान आदि की कोई चिंता नहीं होती। साथ ही वह अपने पारिवारिक व सांसारिक व्यवहारों व कार्यों को भी ईश्वर की सेवा समझते हुए बड़े अहोभाव से पूर्ण करता है।
अपने कर्तव्यों व दायित्वों को परिश्रम, निष्ठा व लगन से यथा-समय पूर्ण करना, अपने सच्चे आत्मस्वरूप का दर्शन करने के लिए ईश्वर की उपासना, आराधना, भक्ति व उस ईश्वर के दर्शन हेतु निरंतर प्रयास करना, अच्छे-अच्छे ज्ञानप्रद आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय करना, सत्पुरुषों की संगती करना, किन्ही आत्मज्ञानी सतगुरु की शरण में जाकर उनके मार्गदर्शन में रहते हुए साधना करना, सात्विक भोजन व संलग्न रहना, सबके प्रति सदभावना रखना, किसी की निंदा न करना, अपनी प्रशंसा न करना तथा दूसरों द्वारा अपनी प्रशंसा व सम्मानित किए जाने पर संकुचित होना, आदि सात्विक अहंकार व्यक्ति के लक्षण देखे जाते हैं।
वह मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, सुख-दुख, लाभ-हानी, जन्म-मृत्यु, अनुकूल-प्रतिकूल आदि सभी द्वानों के बिच में रहते हुए मन की संतुलित स्थिति में अर्थात योग में अथवा पराभक्ति में जीता है और फिर त्रिगुनातित अवस्था को प्राप्तकर अपने मानव जीवन को धन्य-धन्य कर देता है। यही मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। इसी आत्मिक अहंकार के विशुद्ध स्वरुप का नाम है स्वाभिमान।
अपने ऐसे विनीत स्वाभिमान की रक्षा करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है,जहाँ मिथ्या अहंकार की गंध भी नहीं है। सामान्य लोगों की तो बात ही क्या बड़े-बड़े ज्ञानी, विज्ञानी व समाज में उच्च सम्मान प्राप्त विद्वान व्यक्ति भी इस आत्मिक व सात्विक अहंकार के मूल्य को प्राय: समझ नहीं पाते। इसी कारण वे लोग भी कभी उस सच्चे व स्थाई ईश्वरीय आनंद का अनुभव नहीं कर पाते जो हर समय हर व्यक्ति के भीतर व चारों ओर विद्ध्यामन रहता है।
हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमारे ऋषियों ने इस दुस्त्याज्य अहंकार के सम्बन्ध में मानव का इतना सरल व समुचित मार्गदर्शन किया है। व्यक्ति को उसके मिथ्या अहंकार से छुटकारा तभी मिल सकता है और सच्चे स्वाभिमान में उसकी स्थिति तभी हो सकती है जब उसके जीवन में सच्ची आस्तिकता जाग उठे, फिर उस आस्तिकता के साथ वह उस महान ईश्वरीय शक्ति के दर्शनों की तड़प को लेकर व विनीत अहंकार से युक्त होकर, किसी सतगुरु की शरण में पहुंचे तथा सतगुरु उसे अपनाकर उसे दिव्यदृष्टि प्रदान करके उसके मोह आच्छादित मन को निर्माण कर दें तथा उसके अज्ञान अंधकार को दूर करके उसे अपने अमोघ आशीर्वाद से मालामाल कर दें।
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