क्या दुश्मन कभी दोस्त बन सकता है ?

यह हमारी अपनी भावना ही होती है, जो किसी को अपना दोस्त और किसी को अपना दुश्मन बनाती है। जब कोई हमारे मन के अनुकूल कार्य करता है, या फिर हमारे स्वाभिमान की रक्षा करने में मदद करता है, तो हम उसे अपना दोस्त समझने लगते हैं। इसके उलट अगर कोई हमारे मन के प्रतिकूल कार्य करता है, या फिर हमारे स्वार्थों पर कुठाराघात (बहुत हानि पहुँचाने वाला कार्य) करता है तो हम उसे अपना दुश्मन करार देते हैं।

क्या दुश्मन कभी मित्र बन सकता है ?

यह हमारे शत्रु-भाव हमारे अंदर ईर्ष्या, नफरत पैदा करता है। हमारे मन और हमारी इन्द्रियों को चंचल बनाता है। और उनमें व्याकुलता पैदा करता है। हम शांति से बिलकुल दूर हट जाते हैं, और इसके चलते हमारा मन चौबीसों घंटा अशांत रहा करता है।

रात को भरपूर नींद भी नहीं आती और हमारे मन तथा इन्द्रियों में एक विचित्र उथल-पुथल मचने लगती है। हम अपने दुश्मन को कैसे परास्त करें, कैसे उसे अपने कब्ज़े में लाए, रात-दिन यही सोचते रहते हैं।

यदि दुश्मन हमसे कमजोर हुआ या फिर हमारी बराबरी का रहा, तो अनेकों तरह के दाँव-पेंच से हम उसे नीचा गिराने की कोशिश करते रहते हैं। यदि वह हमसे शक्तिशाली रहा तो उसके जुल्मों को, अत्याचारों को अपनी लाचारीवश सहन करते हुए मन ही मन कुढ़ते रहते हैं, और उसके अनभले की कामना करते रहते हैं। एक दूसरे का यह शत्रुभाव दोनों ही के अंदर एक टीस पैदा करता रहता है और जीवन को दुखमय बना बिल्कुल बर्बाद भी कर डालता है ।

प्रश्न यह होता है कि क्या एक-दूसरे का शत्रु-भाव बदला भी जा सकता है ?

क्या दुश्मन की वह बुरी सोच को अच्छी सोच में बदला जा सकती है ? क्या वह एक दिन हमारा सच्चा दोस्त भी बन सकता है ?

गुरुजन बताते हैं कि हाँ, ऐसा हो सकता है। हम एक दूसरे के दोस्त बन सकते हैं, और सदा के लिये अपनी अशांति को दूर कर शांति में भी आ सकते हैं। इसके लिये एक अच्छा उपाय उन्होंने यह बताया है कि दुश्मन के प्रति अपनी कुत्सित (गंदा/घिनौना) भावना को, अपने शत्रु भाव को, पहले हम दुख बदले व उसे हटाने की चेष्टा करें।

इसके लिये हम अपने अंदर ऐसी भावना लाए, कि वह अब हमारा दुश्मन नहीं रहा, बल्कि वह हमारा सच्चा दोस्त ही है। इसके अलावा, हम अपने दुश्मन के साथ अपने बाहरी व्यवहारों को भी बदल दें, ठीक कर लें। हम अपनी ओर से कोई ऐसा कार्य नहीं करें कि उसकी भावना को ठेस लगे, उसका दिल दुखे।

इस प्रक्रिया का फल ये होगा कि हमारे दिल के अंदर उत्पन्न वह हमारी सदभावना उसकी भावना को भी जाकर ठोकर मारेगी और उसे प्रभावित कर उसके मनोभाव को भी वह बदल देगी। उसकी भी वह पूर्वभावना सदभावना में बदलनी शुरू हो जाएगी और आगे चलकर फिर दोनों ही की भावना एक हो जाएगी, दोनों ही का रूप एक हो जायेगा। फिर दोनों एक दूसरे के दोस्त हो जायेंग ।

ऐसा सद्व्यवहार (good behavior) करते हुए भी यदि आगे दुश्मन की ओर से कोई कष्ट मिले, अगर कुछ जुल्म या अत्याचार आता रहे, तो यहाँ पर भी हमें अपनी ऐसी भावना बना लेनी चाहिए, कि यह जो भी उत्पीड़न हमें मिल रहा है, जो भी मुसीबतें हम पर आ रही है, यह सब मालिक (god) की ओर से आ रही है।

इस तरह से हम और शुद्ध व पवित्र हो रहे हैं और इसमें भी हमारी भलाई ही छिपी है। इस भाव के उदय  होती है वह हमारा कष्ट दाता भी, जो यहाँ माध्यम बना है, वह भी हमारा सच्चा हितैषी नजर आने लगेगा। ऐसी भावना लाते ही हमारा वह दुश्मन एक सच्चे दोस्त में परिणत हो जाता है, और श्त्रुजनित हमारी वह अशांति भी सदा के लिये दूर हो जाती है।

यह सब काम हमारी सदभावना ही कराती है। पर हमारे अंदर ऐसी सदभावनाओं का उदय तभी होता है जब कुछ ज्ञान की स्थिति में होते हैं। यह ज्ञान भी हमें तभी मिलता है, जब हम किसी मार्ग प्रदर्शक गुरु की शरण में जाते हैं, क्योंकि गुरु ज्ञान के भंडार होते हैं। फिर यह ज्ञान भी गुरु कृपा से ही मिलता है।

जब हम कुछ दिन गुरु की छत्रछाया में रहते हैं, उनके दयापात्र बनते हैं, तभी ज्ञान का यह प्रकाश हमें मिलता है, हमारे अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर कर हमारी सद्वृतियों को जगाता है और आगे हमारी साधना के मार्ग को सरल बना देता है। गुरु महाराज हम सब पर कृपा करें और हम सभी को वह ज्ञान-चक्षु देकर हमारी उन कुत्सित भावनाओं को दूर करें, जिससे संसार में कोई भी हमारा दुश्मन न रह जाए। सभी हमारे दोस्त बन जायें और हम सभी एक हो जायें।