प्रार्थना कैसे करें? पूजा करने का तरीका

प्रार्थना कैसे करें? पूजा करने का तरीका यह देखने में आता है कि हमारी बहुत सी प्रार्थना निष्फल हो जाती है। हम दुख से बचने को खूब प्रार्थना करते है लेकिन वह आ ही जाता है, school में लड़के daily प्रार्थना करते है शुद्ध व सदाचारी बनने की, लेकिन वैसा बहुत कम होता है। क्या आपने कभी इस पर विचार किया है कि ऐसा क्यों है? इसका करण एक तो यह है कि हमारी प्रार्थना तो हुई लेकिन वह ऐसे ही हुई जैसे एक अंधा आदमी जानवर के पैरों की आवाज़ सुन कर कहे कि भाई रास्ता बतला दो।

प्रार्थना कैसे करें? पूजा करने का तरीका

प्रार्थी (प्रार्थना करने वाला) तो प्रार्थना कर रहा है लेकिन मालिक को देखा ही नहीं कि वह है या नहीं। ऐसी प्रार्थना बेकार ही जाती है। दूसरी बात यह है कि प्रार्थना हम कर रहे है वह हम मन से नहीं कर रहे। जब आप भोजन करने बैठते हो तो सब जायका लेते हो, mind happy हो जाता है, कभी ऐसा नहीं होता कि भोजन करते समय आप सो जाए और भोजन का कुछ पता ही न चले। क्योंकि भोजन ज़रुरी है उसके लिये पेट है और उससे वह घटती हुई मालूम भी होती है।

लेकिन प्रार्थना में या ईश्वर भजन में ऐसा नहीं होता इसका एक करण तो यह भी है कि आपकी क्षुधा (प्रार्थना की जरुरत) अभी खुली नहीं। अगर क्षुधा है भी तो यह होता है कि हम उस परमेश्वर को जिसको कि प्रार्थना सुनाने को तैयार है सामने नहीं कर पाते। और तीसरी बात यह है कि भगवान का निवास हृदय में मन के ही पास है लेकिन हम प्रार्थना मन से नहीं करके मुख से करते है।

इसलिए भगवान वहां से दूर है उन्हें वह सुनाई नहीं देती और हमारी प्रार्थना फलदायक नहीं होती।

प्रार्थना तभी फलदायक होगी जब हमें उसकी भूख हो। हम भोजन को जितना ज़रुरी समझते है प्रार्थना या ईश्वर भजन को उतना नहीं। लेकिन यह निश्चय है कि प्रार्थना भोजन से बहुत ही जरूरी है जब प्रार्थना आपकी इस स्तर पर पहुचे कि भोजन चाहे मिले या न मिले लेकिन प्रार्थना की क्षुधा इतना बढ़ जाए  कि उसके बिना रहा ही न जाए।

जिस तरह भोजन से मन तृप्त होता है आत्मा शांत और आनंदित होता है। क्योंकि हमारे life में दो ही वस्तु प्रधान है एक तो यह शरीर और दूसरी आत्मा – जो हमें जीवन दे रही है, जो हमारे अंदर current या विधुत का काम कर रही है। जब हमारे life के लिये यह दो चीजें ज़रुरी है तो उन दोनों के लिये या उनकी कमी को पूरा करने के लिये उनकी खुराक की भी जरुरत है जिसमें शरीर के लिये भोजन और आत्मा के लिये प्रार्थना या भजन है।

तुम जिस प्रकार भोजन के importance को जान गये हो, प्रार्थना के importance को नहीं जान पाए। नहीं तो भोजन से कहीं importance की चीज प्रार्थना बन जाए। प्रार्थना तीसरे number की चीज है। इससे पहले आपको दो काम ओर करने है एक तो यह कि प्रार्थना करने से पहले जिससे हम प्रार्थना करना चाहते है उसके सामने पहुंचे और उसे प्रणाम या अभिवादन करें। उसके बाद उसकी स्तुति या वन्दना करें, उसको खुश करने के लिये कुछ शब्द उसकी सच्ची दया के ऊपर कहें। ऐसा करने से हमारा मन और भी शुद्ध तथा मुलायम बन जाएगा।

जब वह हमारे सामने हो हमारे शब्द सुनने के लिये तैयार और उत्सुक हो तो धीरे शब्दों में अपने दुख को कहें। वही हमारी प्रार्थना होगी। यह हो गया कि हमारी आत्मा की क्षुधा बहुत दिन से खुराक न देने पर मारी गई है उसकी अब हम जरुरत भी नहीं समझते।

लेकिन ठीक समझो कि जब तक तुम्हारी आत्मा की क्षुधा नहीं खुलेगी जीवन में आनंद नहीं आयेगा। उसके लिये तुम बगैर भूख के ही थोड़ा-थोड़ा आत्म भोजन (भजन) करने लगो। आगे आपकी वह क्षुधा बढ़ जाएगी। और उसकी खुराक या प्रार्थना में आनंद आने लगेगा और तुम उसके लिये बेचैन लगोगे।

संतो ने प्रार्थना को बड़ा महत्व दिया है। वह उनके जीवन का एक अंग बन जाती है। उनका भोजन छुट जाए, लेकिन वह न छूटने पाए।

महात्मा गाँधी ने बहुत-बहुत दिनों का अनशन (उपवास) किया लेकिन प्रार्थना का एक दिन भी नागा न जाने दिया। वह कहते थे प्रार्थना में राम आते है, प्रार्थना से मुझे बल मिलता है, प्रार्थना ही मेरे जीवन का आधार है। प्रार्थना के बारे में उन्होंने बड़ा अच्छा लिखा है।वह कहते है – प्रार्थना मन लगा कर न हो तो सब मिथ्या समझिये।

भोजन करते समय तुम आमतौर पर किस को सोता हुआ नहीं देखते, प्रार्थना भोजन से करोड़ गुना महत्व की वस्तु है। इस समय कोई सोये तो यह बहुत दयाजनक स्तिथि मानी जाएगी। प्रार्थना छूट जाए तो मनुष्य को भारी दुख होना चाहिए। खाना छूटे पर प्रार्थना न छुटे। खाना छोड़ना कितनी ही बार शरीर के लिये लाभदायक होता है। प्रार्थना का छूट जाना कभी लाभदायक हो ही नहीं सकता।

पर आदमी प्रार्थना में सोता हो, आलस्य करता हो, बातें करता हो, ध्यान न रखता हो, विचार को जहाँ-तहां भटकने देता हो, उसने प्रार्थना छोड़ दी यही कहा जायेगा। उसने तो सिर्फ शरीर से हाजरी दी उसकी गिनती दंभ में होगी। मतलब उसने दोहरा पाप किया। प्रार्थना छोड़ी और समाज को ठगा। ठगना यानि असत्य आचरण करना अर्थात सत्य व्रत का भंग।

वह आगे लिखते है कि प्रार्थना के दो समय तो पक्के है सबेरे उठते ही अन्त्यार्मी को याद करना और रात को आँखें मूंदते समय उसकी याद रखना। इस बिच जागृत स्त्री-पुरुष सब कामों के करने में अन्त्यार्मी को याद करेंगे और साक्षी रखेंगे। ऐसा करने वाले से बुरा काम तो होगा ही नहीं और अंत में उसकी ऐसी आदत पड़ जाएगी कि हर विचार का ईश्वर को साक्षी रखेगा और स्वामी बनाएगा। यह शुन्यवत हो जाने की स्तिथि है, क्योंकि जिसके सामने हर वक़्त ईश्वर रहता है उसके हृदय में निरंतर राम बसते है।

ऐसी प्रार्थना के लिए खास मंत्र या भजन की जरुरत नहीं होती है। यधपि प्रत्येक क्रिया के आदि और अंत में देखने के लिये मंत्र आते है, पर उनकी आवश्यकता नहीं है। चाहे जिस नाम से चाहे जिस रीती से चाहे जिस स्तिथि में भगवान को याद करना है।

ऐसा करने की आदत बहुत थोड़ों की ही होती है। बहुतों की हो तो दुनियाँ में आप घाट जाए, मलिनता घट जाए और आपस में व्यवहार शुद्ध हो जाए। इस शुभ स्थिति को पहुचने के लिए हर आदमी को जो वक़्त मैंने बताए, वे तो रखने ही चाहिए दूसरे वक़्त भी खुद बाँध ले और नित्य उसमें वृद्धि करते जाएँ, जिससे अंत में हर सांस से राम नाम निकले।

इस व्यक्तिगत प्रार्थना में वक़्त बिलकुल नहीं जाता। उसमे वक़्त की नहीं बल्कि सचेत रहने की जरुरत है। जैसे आँख मुंदने में समय नहीं जान पड़ता वैसे ही व्यक्तिगत प्रार्थना में वह जाता नहीं मालूम होगा। जैसे पलकें अपना काम करती है, यह हम जानते है, वैसे ही प्रार्थना हृदय में चलनी चाहिए।

ऐसी प्रार्थना करने वाले को याद रखना चाहिये कि जिसका हृदय मलिन हो वह मलिनता को बनाए रख कर प्रार्थना नहीं कर सकता। मतलब प्रार्थना के समय मलिनता का त्याग उसे करना ही चाहिए।

जैसे कोई गन्दा काम कर रहा हो और कोई उसे देख ले तो वह शर्मायेगा, वैसे ही ईश्वर के सामने गन्दा या बुरा काम करते हुए उसे शर्माना चाहिए। पर ईश्वर तो सदा हमारे सब कर्म (काम) देखता है, हर विचार को जनता है। इसलिए ऐसा एक भी क्षण (समय) नहीं है कि जब उससे छिपा कर कोई कार्य या विचार किया जा सके। इस तरह हो हृदय पूर्वक प्रार्थना करेगा वह अन्त में ईश्वरमय ही होगा, अर्थात निष्पाप होगा।