ये अर्थयुग है। हर व्यक्ति पैसे की इच्छा से ही सारे काम कर रहा है। आज पैसे की जरुरत है। हमारे परिवार के खर्च बढ़ गए हैं। परिवार की जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं। परिवार चलाना, रोज के खर्चे, बीमारी आदि में में पैसे की जरुरत पड़ती है। संसार में सबसे बड़ी समस्या निर्धनता ही लिखी है। इसलिए हम जैसे-तेसे पैसे कमाने का प्रयास करते हैं। हम ये भी देखते हैं कि इसी धन से किसी के घर में सुख शांति है तथा किसी घर में महान कलेश और अशांति है।
धन और शांति दोनों एक दूसरे से अलग नहीं
संतो ने धन के तीन स्वरूप लिखे हैं –
निक्रष्ट धन
ऐसा धन जो अनुचित उपायों से कमाया गया है। ब्याज का धन चोरी का धन, दूसरे के हिस्से का धन ये सब अनुचित धन है। ऐसे धन से हम धनवान तो हो जाते हैं, कार, बंगला, नौकर-चाकर भी हो जाते हैं, औरों की दृष्टि में तो हम सुखी दिखलाई देते हैं, लेकिन हमारे अंदर में अशांति ही बनी रहती है।
घर में कलेश, कलह का वातावरण रहता है, कोई न कोई रोगी बना रहता है। बच्चे कुसंगमें फँस जाते हैं। धन होने पर भी समस्याओं का कोई उचित हल नहीं निकल पाता।
इस संदर्भ में सुदामा जी का उदाहरण है – सुदामा और कृष्ण दोनों ही सान्दिपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। एक दिन गुरु माता ने दोनों को जंगल से लकड़ी लाने के लिए भेजा। पेट भरने के लिए कुछ चने दे दिए, जब भूख लगे तो तुम दोनों खा लेना।
जंगल में कृष्ण पेड़ पर चढ़कर लकड़ी काटते रहे, सुदामा नीचे से इकट्ठा करते रहे तथा चने भी खुद अकेले ही खाते रहे। पानी भी बरस गया। दोनों भींगते हुए देर शाम को घर पहुंचे तो गुरु माता उन्हें देखकर बड़ी द्रवित हुई।
कृष्ण से पूछा – कन्हैया, तुझे कुछ खाने को मिला ?
कृष्ण ने कहा – माँ, मुझे तो कुछ नहीं मिला।
तब सुदामा की ओर क्रोधभरी दृष्टि से देखते हुए कहा – अरे दरिद्र, तूने कृष्ण का भी हिस्सा खा लिया। तू दरिद्र रहेगा।
शिक्षा के बाद कृष्ण द्वारिकाधीश हो गये और सुदामा दरिद्र। यह दरिद्रता तब तक नहीं गई जब तक कृष्ण ने सुदामा के दो मुट्ठी तन्दुल नहीं खा लिये।
हम ठगी, बेईमानी या बल से दूसरे के हिस्से का धन, जायदाद ले तो लेते हैं लेकिन साथ ही उस व्यक्ति के सारे दुख भी हमें मिल जाते हैं। धन तो उसके हिस्से का ही लेते लेकिन उसके दुख हमें पूरे लेने पड़ते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि वह व्यक्ति कम धन या जायदाद होने पर भी हमसे अधिक सुखी है तथा अधिक संतुष्ट है।
उत्तम धन वही कहा गया है जो धन उचित माध्यम से कमाया गया है।
धन हमारी आवश्यकता है, लेकिन धन कमाने का माध्यम उचित ही होना चाहिए। दीवाली पर हम लिखते हैं शुभ तथा लाभ। लाभ तो हो लेकिन शुभ – ‘ यथा लाभ संतोषा ‘। शुभ लाभ में समृद्धि है, शुभ धन प्राप्त होता है। इस धन से हमारे परिवार में शांति रहती है। धन का व्यय (spend) लोक हित में ही होता है।
शुभ लाभ के साथ हमें उपभोक्ता (consumer) का विश्वास संतुष्टि तथा आशीर्वाद मिलता है। धन के साथ-साथ यश भी मिलता है। दीपावली पर ही हम लक्ष्मी तथा गणेश का पूजन भी करते हैं। लक्ष्मी जी के साथ तो विष्णु भगवान की पूजा होनी चाहिए, क्योंकि वे लक्ष्मीजी के पति हैं, लेकिन हम पूजते हैं गणेश जी को जिनका उस वंश से भी सम्बन्ध नहीं है।
लक्ष्मीजी धन की देवी है, इसलिए धन प्राप्ति के लिए लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं, लेकिन लक्ष्मीजी की सवारी है उल्लू । अर्थात जिस पर सवारी करती है। वह उल्लू बन जाता है। बुद्धि काम नहीं करती गणेश बुद्धि के देवता हैं। इसलिए हम लक्ष्मी जी से प्रार्थना करते हैं आप हमारे यहाँ निवास करें तथा गणेश जी से प्रार्थना करते हैं आप हमारी बुद्धि में निवास करें।
धन के साथ बुद्धि का निर्मल होना भी परम आवश्यक है। जिसे एक कहावत है – ‘ सांप पालो लेकिन सांप के काटने का इलाज भी पहले जान लो ‘ ,
धन कमाओ लेकिन धन कमाने तथा खर्च करने का तरीका भी सिख लो। हमारे ऋषियों ने धर्म को पहला स्थान दिया है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। धर्म वह छलनी है जिससे छन कर शुद्ध धन ही आयेगा। इस धन से हमारी कामनाएं शुद्ध होंगी और हम बिना किसी प्रयास के मोक्ष प्राप्त कर लेंगे।
उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण, अर्थशास्त्र नहीं। उन्होंने धर्म को प्रथम स्थान दिया, ईश्वर को अधिक महत्व दिया अर्थ को नहीं। धन की विचित्र गति है। प्यास एक गिलास पानी पीकर संतुष्ट हो जाता है लेकिन धन जितना मिलता जाता है, उतनी ही धन की प्यास अधिक बढ़ती जाती है। निर्धन के यहाँ ईश्वर है, धर्म है, ईमानदारी है लेकिन धनवान के यहाँ इनका कोई स्थान नहीं वहां केवल धन है।
ईश्वर से ही ऐश्वर्य है। ईश्वर से ही संतुष्टि है। अत: जहाँ ईश्वर है वहीँ ऐश्वर्य है। संतुष्टि है। अत: इसे परम धन कहा गया।
रामायण में प्रसंग आता है। भगवान राम केवट को मणिजटित मुद्रिका नदी उतराई के परिश्रम के शुक्ल रूप में देते है। लेकिन केवट को तो आज परमधाम मिल गया। भगवान के दर्शन तथा भगवान के चरण पखारना, इससे अधिक और क्या धन होगा। आज उसे क्या नहीं मिला। वह कहता है –
नाथ आजू मैं काह न पावा l
मिटे दोष दुख दरिद्र दावा ll
बहुत काल हम कीन्ह मजूरी l
आज दीन्ह विधि सब भल भूरी ll
अब न नाथ कछुं चाहिएँ मोरे l
दिन दयालु अनुग्रह तोरे ll
परमात्मा का ऐसा विधान है कि यहाँ हर जीव पूर्ण ही आता है। ‘ ॐ पूर्णामद: पूर्णामिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते ‘ यहाँ सभी पूर्ण है। यहाँ सभी को पूर्ण आनंद प्राप्त है, पूर्ण शान्ति प्राप्त है तथा अनुराग प्राप्त है। लेकिन यहाँ आकर हमने अपने ही कर्मो से आनंद को सुख और दुख में बदल लिया है। पूर्ण शांति को अशान्ति एवं क्लेश में बदल लिया है तथा पवित्र अनुराग को प्रेम तथा घृणा में बदल लिया है। रामायण में श्री लक्ष्मी जी निषादराज से कहते है –
काहू न कोउ सुख दुख कर दाता l
निज कृत करम भोग सुन भ्राता ll
यहाँ अन्य कोई किसी को न दुख देता है न अशांति न राग द्वेष। प्रकृति (nature) के आये अज्ञान के कारण हम इन आनंद, शांति तथा अनुराग का स्वरूप नहीं जान पाते हैं, अत: इस अंधकार में स्वार्थवश हो इन मुलभुत गुणों का स्वरूप बिगाड़ लेते हैं। यदि हम सभी को आनंद बांटे सबके दुख दूर करने का प्रयास करें, हमें भी आनंद प्राप्त होगा। सबको शांति बांटने का प्रयास करें आपको भी शांति प्राप्त होगी। सभी को प्रेम बांटने से आपको सभी का प्रेम मिलेगा।
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