अपमान का बदला – तेनालीराम की कहानी

Apmaan ka badla, tenaliram ki kahani.. तेनालीराम ने सुना था कि राजा कृष्णदेव राय बुद्धिमानी व गुणवानो का बड़ा आदर करते हैं। उसने सोचा, क्यों न उनके यहाँ जाकर भाग्य आजमाया जाए। लेकिन बिना किसी सिफारिश के राजा के पास जाना टेढ़ी खीर था।

वह किसी ऐसे अवसर की ताक में रहने लगा, जब उसकी भेंट किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से हो सके। इस बीच तेनालीराम का विवाह दूर के नाते की एक लड़की मगम्मा से हो गया। एक वर्ष के बाद उसके घर बेटा हुआ। इन्ही दिनों राजा कृष्णदेव राय राजगुरु ताताचारी तेनालीराम के पास मंगलगिरी नाम के स्थान पर आया। वहां जाकर तेनालीराम ने उसकी बड़ी सेवा की और अपनी समस्या कह सुनाई।

राजगुरु बहुत चालाक था। उसने तेनालीराम से खूब सेवा करवाई और लंबे वादे करता रहा।

तेनालीराम ने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया और राजगुरु को प्रसन्न करने के लिए दिन-रात एक कर दिया।

राजगुरु ऊपर से तो चिकनी-चुपड़ी बातें करता रहा, लेकिन मन-ही-मन तेनालीराम की बुद्धिमत्ता और विद्वंत्ता से जलता था, पर जाते समय उसने वादा किया – जब भी मुझे लगा कि अवसर उचित है, मैं राजा से तुम्हारा परिचय करवाने के लिए बुलवा लूँगा।

तेनालीराम, राजगुरु के बुलावे की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, लेकिन बुलावा न आना था, न आया। आखिर लंबे इन्तेजार के बाद निराश होकर उसने फैसला किया कि वह खुद ही विजयनगर जाएगा।

उसने अपना घर और सारा सामान बेचकर यात्रा का खर्च जुटाया और माँ, पत्नी और बच्चे को लेकर विजयनगर के लिए रवाना हो गया। यात्रा में जहाँ कोई रूकावट आती तो तेनालीराम राजगुरु का नाम ले देता, कहता – मैं उनका शिष्य हूँ।

उसने माँ से कहा – देखा, जहाँ राजगुरु का नाम लिया, मुश्किल हल हो गई। व्यक्ति खुद चाहे जैसा भी हो, अगर नाम ऊँचा हो तो सारी बाधाएं अपने आप दूर होने लगती है। मुझे भी अपना नाम बदलना पड़ेगा। राजा कृष्णदेव राय के प्रति सम्मान जताने के लिए मुझे भी अपने नाम का कृष्ण शब्द जोड़ लेना चाहिए। आज मेरा नाम रामलिंग की जगह रामकृष्ण हुआ।

बीटा मेरे लिए तो दोनों नाम बराबर हैं। मैं तो अब भी तुझे राम पुकारती हूँ, आगे भी यही पुकारूंगी। – माँ बोली।

कोड़विड नमक स्थान पर तेनालीराम की भेंट, वहां के राज्यप्रमुख से हुई, जो विजयनगर के प्रधानमंत्री का संबंधी था। उसने बताया कि महाराज बहुत गुणवान, विद्वान और उदार है, लेकिन उन्हें जब क्रोध आता है, तो देखते-ही-देखते सर धड़ से अलग करवा देते हैं।

जब तक मनुष्य खतरा मोल न ले, वह सफल नहीं हो सकता। मैं अपना सर बचा सकता हूँ। तेनालीराम के स्वर में आत्मविश्वास था।

राज्यप्रमुख ने उसे ये भी बताया कि प्रधानमंत्री भी गुनी व्यक्ति का आदर करते हैं, पर ऐसे लोगों के लिए उनके यहाँ स्थान नहीं है, जो अपनी सहायता आप नहीं कर सकते हैं।

चार महीने की लंबी यात्रा के बाद तेनालीराम अपने परिवार के साथ विजयनगर पहुंचा। वहां की चमक-दमक देखकर तो दंग ही रह गया। चौड़ी-चौड़ी सडकें, भीड़-भाड़, हाथी-घोड़े, सजी हुई दुकानें और शानदार इमारते – ये सब उसके लिए नई चीज थी।

उसने कुछ दिन ठहराने के लिए वहां के एक परिवार से प्रार्थना की। वहां अपनी माँ, पत्नी और बच्चे को छोड़कर वह राजगुरु के यहाँ पहुंचा।

वहां तो भीड़ का कोई ठिकाना ही नहीं था। राजमहल के बड़े-से-बड़े कर्मचारियों से लेकर रसोईए तक वहां जमा थे। नौकर-चाकर भी कुछ कम न थे। तेनालीराम ने एक नौकर को संदेश देकर भेजा कि उनसे कहो – तेनाली गांव से राम आया है।

नौकर ने वापस आकर कहा – राजगुरु ने कहा है कि वह इस नाम के किसी व्यक्ति को नहीं जानते। तेनालीराम बहुत हैरान हुआ। वह खुद किसी तरह राजगुरु तक पहुंचा।

राजगुरु ने उसे पहचानने से इंकार करते हुए धक्के मारकर बाहर निकलवा दिया। अपमान की आग में जलते तेनालीराम ने राजा को खुश कर राजगुरु से बदला लेने का निश्चय किया। दूसरे दिन राज दरबार में जा पहुंचा। उसने देखा कि वहां बड़े जोरों से वाद-विवाद हो रहा है। संसार क्या है? ऐसी बड़ी-बड़ी बातों पर बहस हो रही थी।

एक पंडित ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा – यह संसार एक धोखा है। हम जो देखते-सुनते हैं, महसूस करते हैं, चखते या सूंघते हैं, केवल वह हमारे विचार हैं। असल में यह सब-कुछ नहीं होता, लेकिन हम सोचते हैं कि होता है।

क्या सचमुच होता है? तेनालीराम ने हैरान होकर पूछा।

यही बात हमारे शास्त्रों में कही भी गई है। पंडित जी ने थोड़ा रौब दिखाते हुए कहा और सब लोग चुप बैठे थे। शास्त्रों में जो कहा है, वह झूठ कैसे हो सकता है?

तेनालीराम शास्त्रों से अधिक अपनी बुद्धि पर विश्वास करता था। उसने वहां बैठे सभी लोगों से कहा – यदि ऐसी बात है तो क्यों न पंडितजी के इस विचार की सच्चाई जाँच लें। हमारे उदार महाराज की ओर से आज जो दावत दी जा रही है, उसे हम जी भरकर खाएंगे। पंडित से प्रार्थना है कि वह बैठे रहें और सोचे कि वह भी खा रहे हैं।

तेनालीराम की बात पर जोर का ठहाका लगा। पंडितजी की सूरत देखते ही बनती थी। महाराज, तेनालीराम पर इतने प्रसन्न हुए कि उसे स्वर्ण मुद्राओं की एक थैली भेंट की और उसी समय तेनालीराम को राज्य का विदूषक बना दिया। सब लोगों ने तालियाँ बजाकर महाराज की घोषणा का स्वागत किया, उनमें राजगुरु भी था।

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रवि साव

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रवि साव

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