संसार का यह नियम है कि विद्या हम सभी एक दूसरे से ही सीखते हैं। कोई व्यक्ति सीखता है तो दूसरा सिखाता है। विद्या सिखाने वाले को गुरु, मास्टर या टीचर कहा जाता है। सीखने वाले को विद्यार्थी या शिष्य कहा जाता है। यह क्रम प्रत्येक के जीवन में चलता है, मिसाल के तौर पर किसी को संगीत या चित्रकला सीखनी है, अथवा सिलाई, कढ़ाई, बुनाई या पाक शास्त्र सीखना है, तो वह किसी जानकर से ही सीख सकता है। हर काम में निपूर्ण होने के लिए हमें उनकी (guidance) सीख की जरुरत होती है।
हमारे शास्त्रों में गुरुतत्व को ‘ शिव जी ‘ और शिष्य को ‘ पार्वती जी ‘ का स्वरूप दिया है। पार्वती जी प्रश्न करती हैं, उसका उत्तर शंकर जी देते हैं। हर विद्या में गुरु का अस्तित्व है, इसलिए गुरुतत्व विश्व व्यापी है। कहते हैं कि शिव जी सभी विद्याओं के आचार्य हैं और सभी विद्या उनसे ही निकली हैं, वह आदि गुरु कहलाते हैं।
आध्यात्म में तो गुरु का बड़ा महत्व है क्योंकि ब्रह्म विद्या एक से दूसरे को अर्पित की जाती है।
वास्तव में गुरु को आदर देकर ही कोई विद्या सीख सकता है। उनके प्रति जब तक श्रद्धा व विश्वास न होगा, तब तक कोई उनसे विद्या कैसे सीखेगा, अगर गुरु में कमियाँ नजर आती रहेंगी तो सीखने की लगन में ह्रास हो जाएगा। बताया जाता है कि अपने गुरु में जो साक्षात् ईश्वर की झलक देखता है, उन्ही में ब्रह्म ज्ञान उतरता है।
हमारा कर्तव्य क्या है ? – What Is Our Duty ? in Hindi
शंकर जी के स्वरूप का विवरण इस प्रकार मिलता है कि उनकी जटाएं बिखरी हुई है और जटाओं के मध्य में ऊपर से गंगा की धर गिर रही है जो नीचे बहकर सबों को आनन्दित कर रही है वह ज्ञान दे रही है अर्थात गुरु से ज्ञान बह रहा है, इस ज्ञान में प्रकाश है जो अंधकार को हटाता जाता है।
ज्ञान आने पर विवेक हो जाता है, उसके जागृत होते ही मल, विक्षेप और आवरण दूर होने लगते हैं अंत:करण में आनंद स्रोत बहने लगता है। मनुष्य जब तक अपने अंत:करण में बैठ शिव का पूरे स्वरूप में दर्शन नहीं कर लेता, तब तक उसमें अज्ञान रहा है। ज्ञान रहते हुए भी ढके रहने के कारण वह अज्ञानी रहता है, जैसे घर में जलते हुए दीपक पर कोई हंडियां ढक दे। तो प्रकाश नहीं दिखेगा, अंधकार ही रहेगा।
यह भी देखा गया है कि यदि विद्या बाटी न जाए तो उसका लोप हो जाता है। इसी प्रकार संसार में जितने महापुरुष हुए हैं, उन्होंने अपने शुभ संदेशों को लोक कल्याण के लिए फैलाया। अच्छी बातें सिखाने के लिए देशाटन किया और घर-घर जाकर जनता में जाग्रति उत्पन्न की। अपनी गुरु की सुन्दर वाणी, अच्छे विचार, शुभ संदेश जन-जन तक पहुँचना ही उनका धर्म रहा।
एक समय की बात है एक महात्मा के दो शिष्य थे। उन्होंने दोनों को कुछ बीज दिए और कहा कि इन्हें बहुमूल्य निधि से समान सुरक्षित रखना और कहा कि कुछ दिन बाद आकर वह देखेंगे कि किस-किस ने कितनी अच्छी तरह उन बीजों को रखा।
उनके जाने के बाद एक शिष्य ने उन बीजों को कपड़े में बांध कर सन्दुक में ताला डालकर बंद कर दिया। दूसरे शिष्य ने सोचा कि कुछ समय बाद बीज खराब ह जायेंगे, तो उसने सावधानी से उन्हें खेत में बो दिया।
खेत में उससे अच्छी फसल हुई, तो उस शिष्य ने जितने गुरूजी ने बीज दिये थे उतने सम्हाल कर रख दिए शेष अन्य कोगों में वितरित कर दिये। इसी प्रकार उसने फसलें उगाई और हर बार मूल बीज रखता गया। दो वर्ष बाद महात्मा जी लौटे और अपने दोनों शिष्यों को बुलाया, बीजों के विषय में पूछा और कहा कि देखें किसने बीज अच्छी तरह व सुरक्षित रखा है ? पहले शिष्य ने कहा कि बीज सन्दुक में बंद करके संभाल कर रखे है। बक्सा खोल कर देखा गया तो बीज बर्बाद हो चुके थे। उनमें घुन लगकर पाउडर हो चुके थे।
दूसरे शिष्य ने अपने बीज दिखाए, वह स्वस्थ, सुन्दर व स्वच्छ थे। उनमें कीड़े नहीं लगा था। गुरूजी ने उससे पूछा कि तुम्हारे बीज क्यों नहीं खराब हुए, तो उसने बतलाया कि उसने बीज बोकर फसलें तैयार करीं और मूल बीज रखता गया। इसलिए घुन नहीं लग पाया। गुरूजी बाद वाले शिष्य से प्रसन्न हुए कि तुमने फसल उगाकर बीज बर्बाद नहीं होने दिये। कहने का तात्पर्य यह है कि चीजों को, अच्छे विचार व अच्छा ज्ञान दूसरों को बांटो ताकि वह बात आगे चले, वहीँ समाप्त हो जाए। ज्ञान देने से ज्ञान बढ़ता है। अपने में सिमित रखने से कमी होती है। जैसे औजार या हथियार का प्रयोग न किया जाए तो उसमें मोर्चा (जंग) लगने लगती है।