महात्मा कबीरदास जी ने लिखा है –
माली आवत देखि करि कलियन करी पुकारी l
फुले फुले चुन लिए, काल्ह हमारी बरी ll
एक बहुत ही महान संत ने जब संसार में दृष्टि दौड़ाई तो उन्हें लगा कि प्रकृति में भी स्पन्दन (धड़कन) है, उसमे भी मानव की तरह सम्वेदन है जो एक कली के माध्यम से महसूस कर रही है कि संसार में ठहराव नहीं है, जो आया है वह जायेगा, नष्ट होगा, मिट्टी में मिल जायेगा। फर्क सिर्फ इतना ही है कि कोई पहले नष्ट होगा तो कोई बाद में।
तुम जो भी करो भगवान तुम्हें रोकेगा नहीं
जिसने प्रकृति के तत्वों को धारण किया है वह ज़रुर ही उतारने पड़ेंगे, त्यागने पड़ेंगे। लेकिन इस बीच का जो थोड़ा सा समय है जिसे हम जीवन कहते है, उसमे हमें क्या हासिल कर लेना चाहिए, क्या लक्ष्य बनाना चाहिए जिसे पाया जा सके, यही बात समझने की है।
अगर प्रकृति के जीवन और मानव के जीवन को देखें तो लगता है कि प्रकृति ने अपना लक्ष्य बेहतर समझा है। एक पुष्प को देखिये वह पुष्प बनकर किसी न किसी को सुगंध दे ही जाती है, किसी वृक्ष को देखिए वह संसार की सेवा में फलों का टोकरा अर्पित कर देती है।

मेघ (बादल) का जीवन ताप से ही बनता है लेकिन वह धरती की प्यास बुझाकर ही नष्ट होता है। लेकिन एक मानव है कि जिसके सामने कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं है। न उसे यह विवेक है कि कल मुझे भी जाना है और जिस धरती पर मैं आया हूं, उस परिवेश को जहाँ में पला हूं, मुझे कुछ देना भी है।
जीवन से जुड़ी सोचने वाली बात इसे जरुर पढें
आखिर ये अंतर क्यों है? सोचने का यह गलत ढंग कैसे पनप गया है?
बात यह समझ में आती है कि मनुष्य ने केवल वही प्रकार देखा है जिसमे अच्छे-बुरे सभी काम किये जा सकते है। वहां कोई रोकने वाला नहीं है कि क्या कर रहे हो, तुम्हें यह नहीं करना है। याद आती है पूज्य पंडित जी के द्वारा दिये गए उस उदाहरण की कि सूर्य की रोशनी में और बल्ब की रोशनी में तुम रामायण भी पढ़ सकते हो और ताश भी खेल सकते हो।
याद आता है स्वामी रामकृष्ण का वह वाक्य कि ईश्वर के प्रकाश में तुम धर्म ग्रन्थ भी पढ़ सकते हो और जाली दस्तावेज़ भी तैयार कर सकते हो ईश्वर रोकेगा नहीं करण यह है कि ईश्वर का प्रकाश (ज्ञान) लेने के लिए जानने और समझने के लिए भी एक ऐसे प्रकाश की जरुरत है जो हमें यह दिखा सके, समझा सके, जीवन में ला सके कि वह ईश्वर क्या है?
जिन महापुरुषों ने ईश्वर की प्राप्त किया है उनमें आदि गुरु शंकराचार्य के अनुभव से लाभ उठाना मनुष्य मात्र का कर्तव्य है। वह कहते है, पहली चीज है, ‘विवेक’ इसके बाद वैराग्य किसी काम का नहीं। संसार की घटनाओं को एक सन्यासी भी देखता है और गृहस्थ भी।
एक धनि भी उन्ही परिस्तिथियों में होकर गुजरता है जिनमे निर्धन होकर गुजरता है। ऐसे ही एक राजा भी विचित्र घटनाओं से गुजरता है और एक साधारण पुरुष भी। प्रश्न तो यह है कि हम उन घटनाओं और परिस्तिथियों से क्या सबक लेते है? इस सम्बन्ध में एक पुरानी कहानी है।
सबके साथ अच्छा व्यवहार करना ही हमारा पहला धर्म है
कथा इस प्रकार है – कि दो मित्र थे एक ब्राह्मण और दूसरा वेश्य। दोनों ही देवी के उपासक थे। दोनों ही परिवारों में घर में गरीबी को लेकर कुछ कहा-सुनी हो गई। बच्चों ने, पत्नी ने दुर्व्यवहार कर डाला। इससे दोनों ही दुखी हुए। दोनों ने ही यह फैसला किया कि घर-बार छोड़ दिया जाए और जंगल में तपस्या की जाए।
दोनों चल दिए और जंगल में रहकर देवी की उपासना करने लगे। देवी प्रसन्न हुई, दर्शन दिया और पूछा – तुम मुझसे क्या चाहते हो? वेश्य ने सोचा कि जब देवी प्रसन्न ही है तो अनंत धन मांग कर घर की देवी को क्यों न प्रसन्न का लूँ और सुख-पूर्वक रहने लगूं।
उधर ब्राह्मण ने विचार किया कि माँ के दर्शन पाना सरल नहीं है। यदि में धन-धान्य मांग लेता हूँ, तो माँ की भक्ति व ज्ञान से वंचित रह जाऊँगा, जीवन निरर्थक हो जायेगा। यह धन-धान्य और संसार का सुख तो अनेक जन्मों से जीव मिलता रहा है और आगे भी मिलता रहेगा लेकिन इस जन्म में यह जो दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुआ है उसके बदले माँ की भक्ति के अतिरिक्त कुछ भी माँगना मेरे लिए हितकर नहीं होगा।
इन दो व्यक्ति में एक को विवेक की प्राप्ति नहीं हुई, दूसरे का विवेक जाग्रत हो गया था। इसलिए दोनों ने अपने भाव के अनुसार वरदान प्राप्त किया।
खाना खाने से पहले भगवान को क्यों याद करते है?
इस प्रकार की घटनायें जीवन में नित्य प्रत्येक मनुष्य के सामने आती रहती है, संसार के व्यवहार का नग्न-रूप वह नित्य अपनी आँखों से देखता रहता है, फिर भी इनसे लाभ उठाने की चेष्टा नहीं करता। करण यही है कि उसे विवेक प्राप्त नहीं हुआ।
विवेक प्राप्त करने के लिए गुरु के प्रकाश की आवश्यकता है, उसके सम्पर्क की जरुरत है। दूसरे शब्दों में सत्संग की आवश्यकता है – ऐसा सत्संग जहाँ गुरु का प्रकाश मन और बुद्धि को प्रकाशित कर दे तभी मनुष्य में विवेक की जाग्रति होती है। विवेक शब्द नहीं है, एक ऐसी चेतन्यमयी अवस्था है जिसमे बुद्धि नीर-क्षीर विवेक कर देती है। श्रेय व प्रेय को पहचान सकती है।
जीवन को घटनाओं से सबक लेने की प्रेरणा दे सकती है। गलत काम करते हुए हाथ को रोक सकती है। गलत मार्ग में बढ़ते हुए कदम को रोक सकती है, नेत्रों की मलिनता दूर कर सकती है और इस प्रकार एक पवित्र अवस्था में ले जा सकती है, जहाँ मनुष्य के सामने उसका लक्ष्य होता है और उसे प्राप्त करने को शक्ति भी।
प्रकृति आज भी निर्मल है, पवित्र है। इसलिए वहां के व्यापार सब ठीक चलते रहते है मनुष्य की प्रकृति पर ही अज्ञान का कोहरा छा गया है और अविवेक ने अड्डा जमा लिया है। यही वजह है कि स्वार्थ और लोलुपता बढ़ रही है। हमें चाहिए की सत्संग में बैठे, परमात्मा का ध्यान करे, उस प्रकाश को अपने अंदर धारण करे जो हमारी उस गुत्थी सुलझा सकता है। अन्यथा हम मनुष्य होकर भी प्रकृति से और अधिक जड़ (dull) हो जायेंगे।
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सच में अच्छी बात समझाई है आपने जी ? आपको कोटि-कोटि धन्यवाद जी ?
Thanks