भगवान कहां है? भगवान कहां मिलेंगे?

सभी कहते है कि भगवान सभी जगह है, कण-कण में मौजूद हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में ओत-प्रोत है। हर जगह हर समय उनका ही वास है। पेड़-पौधों की हरियाली और हर प्रकार के सुन्दर फूलों के विकास में उसी की झलक है।

लगातार बहने वाली नदियों और झरनों में, पक्षियों की मधुर कुक में और सुबह की ठंडी, मंद और सुगन्धित हवाओं में उसी की उपस्थिति है। कहाँ तक कहें, शरीर की आंतरिक प्रविधियों, रोम-रोम और हर सांस में वह समाया हुआ है। कोई ऐसी चीज या जगह नहीं जहाँ वह न हो।

भगवान कहां है? भगवान कहां मिलेंगे?

भगवान कहां है? भगवान कहां मिलेंगे?
Bhagwaan kaha hai?

संसार में सब रूप उसके है। न जाने कितने रूप धारण कर वह जीव के सामने आता है फिर भी वह पहचान में नहीं आता। कई तरह के रूप बनाकर जीवन भर लालायें करता हुआ भी वह वास्तविक स्वरूप में प्रकट नहीं होता।

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‘ वह ‘ सब में उसी प्रकार व्याप्त है जैसे तिलों में तेल, चकमक पत्थर में आग तथा दूध-दही में मक्खन-घी होता है लेकिन उसे पाने का वैसा प्रयास नहीं किया जाता जिससे वह जानने में आ सके। संत कबीर कहते है –

ज्यों तिल माहीं तेल है ज्यों चकमक में आगl
तेरा साईं तुझ में जाग सके तो जागll

तिलों में तेल और चकमक पत्थर में आग अपने आप प्रकट नहीं हो जाती। लगातार खूब मसलने से तिलों से तेल और चकमक पत्थर को बार-बार रगड़ने पर आग पैदा होती है, ऐसे ही नित्य के अभ्यास और परिश्रम से उस परमात्म तत्व को प्राप्त करने के विषय में कहा गया है।

हर जगह उसका मौजूदगी स्वीकार कर लेने पर भी वह सबको दृष्टिगत नहीं हो जाता। वह दृष्टि जीव के पास नहीं है जिससे वह अनुभूति में आ सके। विवेक दृष्टि मिलने तक सबके सामने मौजूद हुआ भी अदृश्य ही रहता है। ऐसा वह पावन क्षण उसकी कृपा से ही सुलभ हो पता है। यह जीव के अधिकार में नहीं, कृपा साध्य है। जिसे वह जानना चाहता है, वही जान पता है।

माता-पिता के रूप में वह घर में ही मौजूद है। कितने ऐसे पुत्र है जो उन्हें परमेश्वर का रूप मानते है। महाभारत में कहा है की – माता-पिता की सेवा तथा उनकी आज्ञापालन से बढ़कर कोई बड़ा धर्म नहीं है।

न हयातो धर्म्चरण किंचिदस्ति महत्तरl
तथा पितरि शुश्रुषा तस्य वा वचनक्रियाll

माता-पिता से प्रेम न करने वाली सन्तान अध्यात्म-मार्ग में आगे नहीं बढ़ सकती। गोस्वामी तुलसीदास जी के मत से हृदय से उन्हें चाहने वाली सन्तान को चारों पदार्थ सुलभ हो जाते है, यथा –

चार पदारथ करतल ताकेl
प्रिय पितु मातु सम जाकेll

इस सम्बन्ध में महाभारत की एक कथा इसका प्रमाण देती है जिसमे माता-पिता की अनुमति लिए बिना और उनके प्यार व ममता की अनदेखी कर वन में तपस्या करने गये किसी एक सन्यासी से एक ब्याध (बहेलिया) समान झूले में बिठाये अपने माता-पिता की ओर देख कर कहता है –

पिता माता च भगवन एतो में देवतम परमl
यद् देवतेभ्य: करत्त्व्यम तदेताभ्याम करोम्यहमll

अर्थात – है ब्राह्मण देवता ! ये माता-पिता ही मेरे परेश्वर है। ईश्वर के लिए जो कर्त्तव्य कहा गया है, वह में इनके लिए करता हूं। अब तपस्वी की आँख खुलती है और घर को लौट जाता है। भगवान राम और श्रवन कुमार की मातृ -पितृ भक्ति से सभी परिचित है।

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एक कवि ने काव्यात्मक चित्रण के जरिए से एक heart touching प्रसंग का वर्णन है। हमेशा रामायण का पाठ और भगवान नाम का जप करने वाले एक सज्जन नदी के पुल के ऊपर ताकते-बैठे चुलबुले बंदरों को पुए खिलाते जाते है। वही पर एक दुर्लब ललचायी आँखें से देखते और हाथ फैलाये याचक (भिखारी) की ओर देखते तक नहीं।

ऐसे कथा कथित पुण्य कामो से क्या लाभ, जहाँ हृदय में मानवीय संवेदनाओं का संचार नहीं होता तथा सोयी इन्सानियत नहीं जाग पाती। अखिल विश्व के पालनहार उस प्रभु को अपने अंतर में न देख जीव उसको बाहर खोजता है। उसको पाने को व्रत -उपवास आदि अनेक क्रियाओं का सहारा लेता है।

मन्दिर की मूर्ति या photo में तो उपस्थित मानता है लेकिन परिस्तिथियों में विवश, अभावग्रस्त, दुखी तथा दीन-हिन जनों में उसको प्रतीत वह नहीं कर पाता है। उसके अंदर उस संवेदना का अभाव होता है जो प्रभु की समीपता कराती है।

भौतिक रूप से सम्पन्न आज का मानव अपने तथा अपने परिवार के सुख-आराम के लिए अथवा जन्मोत्सव, विवाह, तीर्थ-भ्रमण या सैर-सपाटों के कार्यक्रम में धन व्यय (money waste) करते नहीं झिझकते अपितु इसे वह अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ता है किंतु सड़क किनारे या घर-द्वार पर एक पैसे के लिए गिडगिडाते लाचार भिक्षुक को देने के लिए बगलें झाँकते है।